सुखमय जीवन का रहस्य
आदमी चिंतित, पीड़ित रहता है। कभी यह परेशानी तो कभी वह तकरार। क्या मनुष्य जीवन में खुशियां हैं ही नहीं? शरीर को तीर्थस्थान माना जाता है। यह मनुष्य योनि सुखमय मंगलमय है। इससे श्रेष्ठ कोई योनि नहीं है। इस धर्म क्षेत्र को कुरुक्षेत्र बनाती है हमारी वृत्ति। श्रीमद भगवद गीता के तीसरे अध्याय (श्लोक-10) में श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब ब्रह्म देव ने सृष्टि की रचना की तो उन्होंने मनुष्य को यज्ञ सहित उत्पन्न किया। फिर उन्होंने वर दिया। यह यज्ञ से फुलेंगे-फलेंगे। ये तुम्हारी कामधेनु होगी।
यज्ञ को वेदों में श्रेष्ठ माना गया है और हिंदुस्तान के कोने-कोने में यज्ञ किया जाता है। यज्ञ हमें जीवन जीने की शैली सिखाता है। यज्ञ सभी को खुशहाली और समृद्धि का वरदान देता है। पर जिस क्षेत्र में सब मैं मैं करने लगते हैं, स्वार्थ बुद्धि उत्पन्न होती है तो वहां से लक्ष्मी और खुशी दोनों निकल जाते हैं। अगर हमने अपनी वृत्ति स्वार्थ भाव से नि:स्वार्थी बनाई तो तुरंत जिस खुशी के पीछे हम दौड़ते थे, वो खुशी हमारे पीछे-पीछे दौड़ने लग जाएगी। जरा सोचिए, याद कीजिए- कभी जब आप भी चिंतित, परेशान थे। क्या उसका मूल कारण यह नहीं था- मेरी इच्छानुसार चीजें नहीं हो रहीं। परेशानी का एक मूलभूत कारण है मैं। जब वो ‘मैं’ ‘हम’ में बदल जाता है, आप सबकी भलाई के लिए सोचते हैं तो सुखी हो जाते हैं। इसी से मिलती है अंदरूनी खुशी। ये खुशी किसी चीज पर निर्भर नहीं होती।
किसी भी कार्य में सेवा भाव होना चाहिए, बिना स्वार्थ। चाहे हम से कुछ किया जाए या नहीं। वो भाव ही काफी है। अंग्रेजी के मशहूर लेखक जॉन मिल्टन ने अपनी कविता ‘ऑन हिज़ ब्लाइंडनेस’ में कहा है- चुपचाप खड़े होकर, जो प्रतीक्षा कर रहा है, वह भी सेवा ही कर रहा है। अगर हम एक-दूसरे की भलाई की भावना से काम करते जाएंगे, तो न केवल सुखी होंगे बल्कि आध्यात्मिक रूप से विकसित भी होंगे। हमारी इच्छाएं, वासनाएं यज्ञ की पवित्र अग्नी में भस्म हो जाएंगी और भगवान के दर्शन पाएंगे। इसलिए भस्म को तीन लाइन में कपाल पर तिलक लगाते हैं। यह दिखाने के लिए कि हमारी तीन तरह की वासनाएं हमने मिटा दी- शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक। इसलिए भस्म को विभूति के नाम से भी जाना जाता है। इस तरह यज्ञ जिंदगी में हमारा मार्गदर्शन करता है। सुख और समृद्धि की रहस्यमयी दिशा दिखलाता है।
जानकी संतोखे
मुंबई